अंतर का धीरे-धीरे
तम दृश्य जगत पर छाया।
मैं बड़ी दूर का राही
थक गई फूल सी काया।
हर सांस कान में कहती
निशि है विराम की बेला।
चलना, सूरज उगने पर
तुमने कितना दुःख झेला।
फिर कहा रात ने, आ जा
मैं तुझे गोद में भर लूँ ।
अंचल पंखा करता है
सो-जा कि प्यार फिर कर लूँ ।
चुपचाप बता-अंतर की
है चोट कहॉं सहला दूँ ।
कुछ गाकर धीरे धीरे
मैं तेरा मन बहला दूँ ।
चेतन जग ने कब ऐसा
मीठा व्यवहार किया है।
जड़ प्रकृति इसी से प्रिय है
निज सुख का भाग दिया है।
चेतन है स्वतः अचेतन
जड़ को पद-रज मिलता है।
ऋषि-नारी पाषाणी की
फिर पुलकित देह-लता है।
तम दृश्य जगत पर छाया।
मैं बड़ी दूर का राही
थक गई फूल सी काया।
हर सांस कान में कहती
निशि है विराम की बेला।
चलना, सूरज उगने पर
तुमने कितना दुःख झेला।
फिर कहा रात ने, आ जा
मैं तुझे गोद में भर लूँ ।
अंचल पंखा करता है
सो-जा कि प्यार फिर कर लूँ ।
चुपचाप बता-अंतर की
है चोट कहॉं सहला दूँ ।
कुछ गाकर धीरे धीरे
मैं तेरा मन बहला दूँ ।
चेतन जग ने कब ऐसा
मीठा व्यवहार किया है।
जड़ प्रकृति इसी से प्रिय है
निज सुख का भाग दिया है।
चेतन है स्वतः अचेतन
जड़ को पद-रज मिलता है।
ऋषि-नारी पाषाणी की
फिर पुलकित देह-लता है।
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