अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

मंथर दिनान्त

धीरे धीरे दिन ढलता है।
धीरे धीरे दिन ढलता है
नीलारूण-करूण-गगन ऊपर
मै। तृण संकुल-आकुल भू पर।
दश-दिशि में गहन उदासी है
अवसादित अंतर जलता है
धीरे धीरे दिन ढलता है।
जैसे अंतर का तत्व व्योम
बाहर बन आया तमः तोम।
आकस्मिक अंतर बहिः साम्य,
यक क्या दीपक सा जलता है ?
दिन धीरे धीरे ढलता है।
हृदि शतदल पर धृत अरूण वास
सोता है किसका मौन हास।
किस राशि का है, कर-निकर-लास
दश-दिशि का तम जो ढलता है।
दिन धीरे धीरे ढलता है।
सूने मंदिर सा प्रायभग्न
अब कहां गया जग तिमिरमग्न ?
यह कैसा है अश्रुत विनिमय ?
कवि को कोई फिर छलता है,
दिन धीरे धीरे ढलता है. . . . ।

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