अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

बापू के चित्र वाले नोट

मधुर-मधुर मुसकाकर
अंजलि फैला देते
जादू चल जाता था
पल भर में।
नाना रंग, रूपों के सिक्कों से
भर जाती अंजलि
मूरत अपरिचित,
अनजानी लिपि सिक्कों की।
दस हुआ ? परन्तु तुम
दस पैसे देते थे
पेट भर जाता था।
तुम्हारे कर का वह सुखस्पर्श
है, कहॉं ?
राज भिक्षु।
तुमने अलभ्य सब
सुलभ हमें कर दिये
तुमसे अपलब्ध हुये हमको तुम्हारे राम।
रघुपति राघव राजा राम।
तुम थे, सब अपने थे।
तुम गये कि
आखें फिरा ली सबने।
लाखों के कोष पर
सुना, कि तुम बैठ गये
सोचा कि चिन्तायें
अपनी मिट जायेंगी
तम पूरित कक्ष में
वज्र की तिजोरियां
उपर से डबल लाभ
यह भी कोई रहना है ?
हमसे मिले बिना, कैसे रह पाते हो ?
हाय ! या कि नजरें, तुम्हारी भी फिर गई।
सर्वथा सुलभ थे चित्र
सौ सौ में मिलते हैं।
खादी पहन कर सेठ
साहब से मिलता है।
चुपके से धीरे से
चोरी से गड्डयॉ
टेबल-तल आती हैं
मुंह से लगाकर थूक
नोट गिने जाते हैं।
फिर कुछ फुस-फुस
फिर दानवकृत अट्टहास
सुकुमार न्याय को रौंद-रौंद देता है।
ऐसे में बापू तुम कैसे कल पाते हो ?
उनमें से एक चित्र
भेज देना हमको भी
पूजन किया करें
अन्य नहीं कामना. . . ।

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