अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

बन्दी वीर

‘‘गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर बन्दीवीर की छाया है’’

जागा पंजाब देश
बांध कर कृपाण केश
गुरू के अभिमन्त्रण से जाग उठे सिख सपूत
भूल भविष्य, भूत
गिरि-वन में जन मन में गूंजा
‘‘गुरू की जय’’ कैसा भय ?
सद्योत्थित जाति ने नवरवि की ओर लखा
दृष्टि निर्निमेष
बांध लिये केश।
‘‘जयगुरू दा खालसा जय गुरू दी फतह’’
रणोल्लास से प्रमत्त अनी चली कह।
मोह मुक्त, भय विभुक्त
अंतर अनुरणित हुआ।
पंच आब गूंज उठा
‘‘गुरू दी फतह।’’
दिल्ली-पति का निवास लेता था करूण श्वास किस भय से ?
बार-बार कांप कांप कर हुआ निराश किस प्रलयंकर के विशेष
नयनों से वहिन्ल-विष-विषम हुआ है निस्सृत ?
रो गई निशा निविड़
हरमों का राग-रंग
किस भय से हुआ भंग ?
बादशाहजादो की कहॉं गई भूख प्यास ?
‘‘लाल धरा क्षितिज लाल, प्राची का कुण्ड लाल
तरू लतादि लाल-लाल नाच उठा महाकाल।
काजी ने बंदा की गोदी में दिया डाल
बंदा का पाशबद्ध एकमेव मृदुल बाल।
ओर कहा’’ हो न जाय म्लेच्छ इसे मार डाल।
बनता तू सन्त है
आज यज्ञ अन्त है।’’
बन्दा या बैरागी
तो भी ममता जागी।
फ्रूट पड़ चाहा तब अंतर का रूद्धज्वार
उर में छिपाया, फिर चूम लिया किया प्यार।
दक्षिणकर शिशु के सिर पर रखकर
बंदा ने कहा ‘‘पुत्र व्यर्थ मोह’’ व्यर्थ प्यार
मृत्यु सत्य दुर्विनार हे कुमार।
कैसा भय ? गुरू की जय।
वामपाणि वाम वक्ष में जड़ित हुआ कुमार
दक्षिण कर में कौंधी क्षुरिका फिर प्रखर धार।
आत्मदान- जन्य गर्व एवं उल्लास से
नव मुख पर खेल गई अरूण किरण एक बार
बाल स्वर निर्विकार ध्वनित हुआ तीन बार।
‘‘अलख पुरूख निरंकार’’
और सभा कक्ष चीर
महाशून्य में निर्भय
विलय हुआ ‘‘गुरू की जय।’’
सन्न है सभा विशाल
दर्शक हो गये मौन,
मुंदे नैन झुके भाल
नाच उठा महाकाल।
तप्त शालाकाओं से वधिकों ने दिया मान
बन्दा के तन को, पर वह तोथा महाप्राण
आह ! न कीी अडिग रहा अद्रि तुल्य वक्ष तान
बंधी रही देह किन्तु आत्मा को मिला त्राण।
दर्शक हो गये मौन,
नाच उठा महाकाल।
पूर्णाहुति मिली
और मुण्ड-माल जटाजाल
बोर उठा महाकाल

‘‘जय गुरू सत श्री अकाल’’ अगस्त 1965 राष्‍ट्रधर्म में प्रकाशित

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